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ग़ज़ल
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
इश्क़ इक ज़िंदा हक़ीक़त भी है इक राज़ भी है
वाहिद प्रेमी
ग़ज़ल
सोचा था गुलशन की फ़ज़ाएँ होंगी नग़्मा-बार बहुत
लेकिन जब देखा तो चमन में फूल थे कम और ख़ार बहुत
हैरत बिन वाहिद
ग़ज़ल
बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं
हम अपने हाथों का मिज़्गाँ से काम लेते हैं